#जययौद्धेय सिक्ख धर्म बनाम आर्यसमाज
1857 का ग़दर हुआ.1857 के ग़दर में दिल्ली के जो चारों तरफ़ दिल्ली देहात का जो हिस्सा था उसने ग़दर में मुख्य भूमिका निभाई और अंग्रेजों को नाकों तले चने चबाने पड़े.इसलिए अंग्रेजों नें सोचा अगर संयुक्त हरयाना को तोड़ना होगा नही तो ये फ़िर ग़दर मचाएंगे.1858 को अंग्रेजों नें हरयाना को तोड़ दिया.हरद्वार जो हरयाना का द्वार होता था,कुछ हिस्सा up में जोड़ दिया,जिसको वेस्टर्न up कहा जाता है.हरयाना का कुछ हिस्सा पंजाब में जोड़ दिया जिसको आप हरयाना कहा जाता है.
हरयाना का जो हिस्सा पंजाब से जुड़ा उससे एक सम्भावना पैदा हुई कि, पंजाब के प्रभाव आकर सिक्ख बन जाएगा और ये केवल सम्भावना ही पैदा नही हुई हरयाना के जाट नें कुरुक्षेत्र,करनाल,कैथल,यमुनानगर,अम्बाला आदि जगहों पर सिक्ख धर्म को अख्तियार करना शुरू भी कर दिया.
इससे ब्राह्मणों को चिंता हुई कि पंजाब का जाट तो पहले ही सिक्ख बन चुका है अगर हरयाना का जाट भी सिक्ख बन गया तो फ़िर up का जाट भी सिक्ख बनेगा और राजस्थान का जाट भी सिक्ख बनेगा और बाकि सभी जगहों का जाट भी सिक्ख बन जाएगा.इस तरीके से जाट कौम एक मज़बूत कौम बनकर उभरेगी और जो गुरु गोविंदसिंह महराज जी नें कहा था,राज़ करेगा खालसा आकि रहे ना कोए,अफगानिस्तान से लेकर पटना तक सिक्ख धर्म का प्रभाव हो जाएगा.गुरुद्वारों में चंदा जाना शुरू हो जाएगा और ब्राह्मणों के मंदिरों में कुछ नही जाएगा.इसलिए ब्राह्मणों को ये चिंता हुई कि किसी भी तरीके से जाटों को सिक्ख बन्ने से रोका जाए.इसके लिए मुम्बई के लोअर प्रेल में देश के एक्चुअल ब्राह्मणों की मीटिंग हुई जिसमे 91 ब्रह्मण और 6 बनियों नें पंडित मूलशंकर तिवारी उर्फ स्वामी दयानंद सरस्वती की अध्यक्षता में आर्यसमाज की स्थापना कर दी.
स्वामी दयानंद सरस्वती उर्फ पंडित मूलशंकर तिवारी एक गुजराती ब्रह्मण और एक धडीया ब्रह्मण था.
धडीया ब्रह्मण किस किस्म का होता है जो एक ही बार में एक धडी माल खा जाए.दयानंद सरस्वती जो एक धडीया ब्रह्मण था, इसकी लीड़रशिप में पूरे देश का ब्रह्मण इकट्ठा हुआ और इसके बाद ये हरयाना में आया,पंजाब में आया.हरयाना में आकर पंडित मूलशंकर तिवारी उर्फ दयानंद सरस्वती नें कहा कि जाट कौम क्षत्रिय कौम है,जबकि ब्रह्मण नें उससे पहले जाटों को शूद्र और चांडाल लिखा हुआ था.सत्यार्थप्रकाश में दयानंद नें जाटों को जाट जी लिखा और उस समय हम जी बटेउ यानि दामाद को सम्बोधित करते थे यानि दयानंद नें जाटों को ब्टेउ की संज्ञा दी ताकि जाट उसकी चिकनी चुपडी बातो में फँस जाए.दयानंद नें सत्यार्थप्रकाश में सिक्ख धर्म के पंचप्रकार को काउंटर करने के लिए पंचमहायज्ञ की परीपाटी लें आया.सिक्ख धर्म की कटार जो हमारे गले में थी और हमारी मार्शलिटी को और ज्यादा उजागर करती थी,उसकी जगह जनेऊ दे दिया,कड़े की जगह धागा बाँध दिया,केस की जगह सत्यार्थप्रकाश में लिखा की आर्य समाजी ना केस रखेगा ना बाल रखेगा ना मूंछ रखेगा.
हरयाना के अंदर भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के दादा मातूराम नें सबसे पहले जनेऊ धारण किया था जब भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के दादा मातूराम जनेऊ धारण कर रहे थे तो रोहतक के अंदर आसपास के गाँवों नें पंचायत कि और मातूराम से पूछा कि भाई तुम क्या बन रहे हो तो इन्होने कहा कि मै अब आर्यसमाजी हो गया हूँ तो लोगो नें कहा तुम बैल क्यों नही हुए जो किसी के तो काम आते,अब तुम हमारे किस काम के.
यानि उस समय हमारे लोगो नें अपने स्तर पर आर्यसमाज का विरोध किया था क्योंकि हम लोग सिक्ख धर्म से जुड़ना चाहते थे लेकिन पंडित मूलशंकर तिवारी उर्फ धडीया ब्रह्मण नें चिकनी चुपडी बातो से हमें सिक्ख बन्ने से रोक दिया जिसका हमारी कौम को बहुत भारी नुकसान हुआ.
सबसे पहला नुकसान तो ये हुआ कि अगर उस टाइम अगर हम सिक्ख बन जाते तो हम इन मंडी फँडी पर हुकूमत करते.दूसरा आर्यसमाज उस टाइम अंग्रेजों के साथ पोलोग्रेश्न करके चल रहा था,अगर आप आर्यसमाज का पूरा इतिहास पढ़ोगे तो आपको ये नज़र आएगा कि आर्यसमाज अंग्रेजों के साथ पोलोग्रेतीव पोलटिक्स करके चल रहा था यानि अंग्रेजों के साथ हाथ में हाथ डालकर चल रहा था और ये बात सबसे पहले सर छोटूराम की समझ में आई और सर छोटूराम को ये बात कब समझ में आई.....
थैंक यू
सरदार रोबिन सिंह संधू
मोहनपुरा श्री गंगानगर
जाटलैंड
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