राजा ईश्वरीसिंह को सहायता – बागडू (बागरू) का युद्ध (अगस्त, 1748 ई०)

21 सितम्बर, 1743 ई० को सवाई जयसिंह की मृत्यु के साथ ही उसके दोनों पुत्रों ईश्वरीसिंह और माधोसिंह के बीच उत्तराधिकार का युद्ध शुरु हो गया। माधोसिंह ने अपने मामा उदयपुर के महाराणा जगतसिंह की सैन्य सहायता के बल पर ईश्वरीसिंह के दावे को चुनौति दी। यह गृह-युद्ध कई वर्षों तक चलता रहा, जिसका निर्णय 20 अगस्त, 1748 को बागडू के युद्ध में हुआ।

इस युद्ध में माधोसिंह की ओर मल्हारराव होल्कर, गंगाधर तांतिया, मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह, जोधपुर नरेश, कोटा तथा बूंदी के राजा थे। इन सप्त महारथियों ने माधवसिंह को समर्थन देकर ईश्वरीसिंह को पदच्युत करना चाहा। इस पर ईश्वरीसिंह अकेला पड़ गया, तब उसने ब्रजराज बदनसिंह को पत्र लिखकर तत्काल सहायता की अपील की।

राजा बदनसिंह के आदेश पर कुंवर सूरजमल 10,000 चुने हुए घुड़सवार, 2,000 पैदल, 2,000 बर्छेबाज तथा सैंकड़ों रथ और हाथी लेकर कुम्हेर से ईश्वरीसिंह की सहायता के लिए चल पड़ा और जयपुर पहुंच गया। मोती डूंगरी में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें मराठों ने भारी शक्ति लगाई किन्तु सूरजमल की जाट सेना के सामने गंगाधर तांतिया और होल्कर की सेनाओं को हार स्वीकार करनी पड़ी। फिर उन्होंने बागडू में, जो जयपुर से 18 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित है, अपना मोर्चा लगाया।

ईश्वरीसिंह भी अपनी 30,000 सेना लेकर कुंवर सूरजमल की सेना के साथ बागडू युद्ध-स्थल पर पहुंच गया। ईश्वरीसिंह के विरुद्ध सात राजाओं का संयुक्त मोर्चा बन जाने के कारण यद्यपि युद्ध का सन्तुलन एकपक्षीय जान पड़ता था, किन्तु सूरजमल के नेतृत्व में जाटों की साहसिक भूमिका ने युद्ध का निर्णय उसके पक्ष में करा दिया।

रविवार, 20 अगस्त 1748 ई० को बागडू में दोनों पक्षों के बीच घमासान युद्ध आरम्भ हो गया। भारी वर्षा के बीच तीन दिन तक भीषण संग्राम हुआ। जयपुर सेना के हरावल (अगले भाग) का नेतृत्व सीकर के ठाकुर शिवसिंह शेखावत को दिया गया, सूरजमल केन्द्र में और कछवाहा राजा ईश्वरीसिंह पिछले भाग का नेतृत्व कर रहा था। पहले दिन तोपों की लड़ाई हुई, परन्तु इससे कोई निर्णय नहीं हो सका। दूसरे दिन माधोसिंह का पलड़ा भारी रहा और ईश्वरीसिंह का प्रधान सेनापति सीकर का पराक्रमी सरदार शिवसिंह खेत रहा। तब तीसरे दिन हरावल (अग्रभाग) का नेतृत्व सूरजमल को सौंपा गया।

युद्ध शीघ्र ही पूरे वेग के साथ फूट पड़ा। चतुर मराठा सरदार होल्कर ने गंगाधर तांत्या को एक सशक्त सेना के साथ अचानक ईश्वरीसिंह के पृष्ठ भाग की ओर भेजा। गंगाधर फुर्ती से सेना के व्यूह को भेदकर उनियारा के राव सरदारसिंह नरूका पर टूट पड़ा तथा कीलें लगाकर शत्रु की तोपों को नष्ट कर दिया। पराजय को निकट देख हतप्रभ ईश्वरीसिंह ने अपनी आशा सूरजमल को हरावल से बुलाकर गंगाधर पर आक्रमण का आदेश दिया। सूरजमल तुरन्त पलटकर सहायतार्थ उस स्थान पर जा पहुंचा, जहां एक कठिन संघर्ष के वह अर्द्ध-विजित मराठों को वहां से खदेड़ने में सफल रहा।

गंगाधर के पीछे हट जाने पर सूरजमल ने टूटे हुए पृष्ठभाग की पुनः स्थापना की और यहां का नेतृत्व पुनः सरदारसिंह नरूका को सौंपकर शत्रु सेना के उमड़ते हुए प्रवाह का सामना करने के लिए हरावल की और लौट पड़ा। संकट के उन गम्भीर क्षणों में जाट कुंवर सूरजमल अद्भुत साहस के साथ लड़ा और उसने अपने हाथ से 50 व्यक्तियों को मौत के घाट उतारा तथा 108 को घायल किया। (वंश भास्कर पृ० 3517-18)

प्रतापी जाट की प्रतिष्ठा के प्रति द्वेष दिखाए बिना बूंदी का राजपूत कवि सूर्यमल्ल मिश्रण इस स्मरणीय अवसर पर सूरजमल के शौर्य का वर्णन काव्यात्मक शैली में इस प्रकार करता है -

सह्यो भलैंही जट्टनी, जय अरिष्ट अरिष्ट।
जिहिं जाठर रविमल्ल हुव आमैरन को इष्ट॥
बहुरि जट्ट मल्लार सन, लरन लग्यो हरवल्ल।
अंगद ह्वै हुलकर अरयो, मिहिरमल्ल प्रतिमल्ल॥
(वंश भास्कर, पृ० 3518)

“अर्थात् जाटनी ने व्यर्थ ही प्रसव पीड़ा सहन नहीं की। उसके गर्भ से उत्पन्न सन्तान सूरज (रवि) मल शत्रुओं के संहारक और आमेर का शुभचिन्तक था। पृष्ठभाग से वापस मुड़कर जाट ने हरावल में मल्हार से युद्ध शुरु किया। होल्कर भी अंगद की भांति अड़ गया, दोनों की टक्कर बराबर की थी।”

इस प्रकार कुंवर सूरजमल ने ईश्वरीसिंह की निश्चित पराजय को विजय में बदल दिया। इस दुष्कर संघर्ष ने कम दृढ़प्रतिज्ञ मराठों के धैर्य को थका दिया। परिणामस्वरूप होल्कर शान्ति का इच्छुक हुआ और माधोसिंह को उन पांच परगनों से ही सन्तोष करना पड़ा जो उसे उसके जन्म-जात अधिकार की वजह से दिए गए थे। (सुजान चरित्र पृ० 39)।

इस युद्ध के पश्चात् कुंवर सूरजमल की कीर्ति सारे भारत में फैल गई क्योंकि उसने राजपूत सिसोदियों, राठौरों, चौहानों और मराठों समेत 7 सेनाओं को एक ही साथ हरा दिया था। यह बात राजस्थान में क्या, भारत के इतिहास में एकदम विचित्र और अद्वितीय थी1।

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